कारसेवक संस्मरण श्रृंखला- 5
याद है वो दिन जब 1992 में सांकेतिक कारसेवा के आवाह्न पर हम सभी कारसेवक जत्थे के साथ ट्रेन से रवाना हुए थे। राजसमंद से हमारे जत्थे में लगभग पंद्रह लोग थे। हमारे जत्था प्रमुख नारायण उपाध्याय थे। रास्ते में कई जगह हमारा स्वागत हुआ, हर जगह भोजन व पानी की उचित व्यवस्था की गई थी।
मुख्य बात यह थी कि हम सभी चार दिसंबर को अयोध्या पहुंचे। इस दिन यादें अब भी मेरे दिल और दिमाग में बसी हुई हैं। यहां हमारे ठहरने की व्यवस्था एक धर्मशाला में की गई थी। छह दिसंबर कारसेवा का दिन निर्धारित था। प्रतिदिन धर्माचार्यों की सभाएं हुआ करती थीं। पूरे देश भर से लाखों लोग इसमें सम्मिलित हुए थे। जिनमें बहनें भी थी। राष्ट्र सेविका समिति और दुर्गावाहिनी की बहनों ने भी कारसेवा में बढ़कर भाग लिया था।
अचानक से हमने देखा कि चारों ओर अफरा- तफरी का वातावरण बन गया। भीड़ इतनी अधिक थी कि धक्का लगने पर सभी एक साथ इधर से उधर खिसकने लगे। मुझे आज भी स्मरण है कि, वहां भीड़ के कारण एक बहन की गोद से उसका बच्चा नीचे गिर गया, मैं भीड़ के कारण ये नहीं देख पाया कि वो उसे उठा पाई या नहीं। परंतु मैंने जो देखा वो किसी भी व्यक्ति में साहस भरने के लिए पर्याप्त था। उस बहन के हाथ से,जिस भीड़ में खड़े होने का स्थान नहीं था। वहां उसका बच्चा गिरा, परंतु उनकी आंखों में एक भी आंसू या डर नहीं था। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे कोई दूसरी पन्नाधाय पुन: अपने पुत्र का बलिदान दे रही हो,अंतर बस ये था कि इस बार बलिदान उदयसिंह के लिए नहीं, भगवान श्रीराम मंदिर के लिए था। ऐसा लग रहा था मानो प्रभु श्रीराम स्वयं हमें साहस दे रहें हैं।
ये बलिदान पुन: रामराज्य की स्थापना के लिए था। धन्य है वो बहन, मैं उन्हें जानता तो नहीं हूं और उनके बच्चे का क्या हुआ ये भी नहीं जानता। परंतु मैं उन्हें सादर प्रणाम करता हूं।
बाद में रामलला की मूर्ति को स्थापित किया गया और सभी ने एक साथ रामलला की आरती की और सभी कारसेवक अपने अपने घरों की ओर निकल पड़े। जाते समय इतनी अधिक भीड़ थी कि सभी ट्रेनों में कारसेवक इंजन तक भरे हुए थे। ऐसा लग रहा था जैसे कोई युद्ध जीतकर हम वापस लौट रहे हैं।
आज प्रभु श्रीराम का मंदिर बनना भारत के सौभाग्य की बात है। कारसेवा में बहनों का अविस्मरणीय योगदान रहा। इस प्रकार हमारी कारसेवक यात्रा समाप्त हुई।