कांग्रेस के कार्यकाल में हुए हाशिमपुरा नरसंहार पर क्यों मौन है सेकुलर मीडिया !

मेरठ के हाशिमपुरा कांड में 2 मई 1987 को हुए नरसंहार में दोषियों को उम्रकैद की सजा सुनाई गई है. दिल्ली हाइकोर्ट ने सभी को हत्या, अपहरण, साक्ष्यों को मिटाने का दोषी मानते हुए सजा सुनाई है और तीसहजारी कोर्ट के फैसले को पलट दिया है. दरअसल दिल्ली की तीस हज़ारी कोर्ट ने साल 2015 में सभी 19 आरोपियों को बरी कर दिया था, जिसमें तीन की मौत हो चुकी है. हाशिमपुरा में निर्दोष लोगों को निशाना बनाए जाने के खिलाफ मोर्चा लेने वालों में डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी की अहम भूमिका रही है, लेकिन सेकुलर मीडिया इस विषय पर कुछ बोलने को राजी नहीं है. हां, गुजरात दंगों पर जरूर पानी पी-पीकर प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को कोसने से ये कभी नहीं चूकते.

कुछ तथ्य जो अब इतिहास का हिस्सा हैं

घटना फरवरी 1986 की है. दिल्ली और उत्तर प्रदेश, दोनों ही जगह (केंद्र में राजीव गांधी और राज्य में वीर बहादुर सिंह के नेतृत्व वाली) कांग्रेस सरकारें थीं. फैजाबाद न्यायालय ने श्रीराम जन्मभूमि पर असंवैधानिक रूप से लगाए गए ताले खुलवाने का आदेश दिया. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में फैसले के विरोध में मुसलमान सड़क पर उतर आए. खासकर मेरठ में कई हत्याएं हुईं. कई घर-दुकानें फूंक दी गईं. हाशिमपुरा, शाहपीर गेट, गोलाकुआं, इम्लियान सहित कई मुस्लिम मोहल्लों में सेना की तलाशी में भारी मात्रा में हथियार और विस्फोटक मिले. हजारों लोग गिरफ्तार हुए और जेल भेजे गए. इसी सब के बीच 22 मई, 1987 की रात को हाशिमपुरा कांड हुआ. इस घटना में 40 मुसलमान मारे गए. आरोप था कि पीएसी ने मुसलमानों को इकट्ठा किया और गंग नहर के किनारे उनको मार डाला.

घटना में कहानी कितनी है, तथ्य कितना, अब यह बहस से परे है. दंगे, दंगाइयों और खाकी की भूमिका की हर तरह से पड़ताल के बाद दिल्ली हाईकोर्ट ने 1987 में मेरठ के हाशिमपुरा में हुए कथित नरसंहार के आरोपी रहे 16 पुलिसर्किमयों को उम्रकैद की सजा सुनाई.

देश में झूठ और वैमनस्य फैलाने की एक सेकुलर फैक्ट्री है. माहौल बनाने वाले मुद्दे ही इस फैक्ट्री का उत्पाद हैं. जो वोट डालने का अधिकार रखता है, वह हर व्यक्ति इस सेकुलकर कंपनी का ‘टार्गेट ऑडियंस’ यानी लक्षित ग्राहक है. इस कारखाने में मुद्दे अंशधारकों की सुविधा का ध्यान रखते हुए ढाले और उछाले जाते हैं.

मुद्दा मानवीय हो, कतई जरूरी नहीं. कसौटी न्यायपूर्ण हो, कतई जरूरी नहीं. हां, अंशधारकों का मुनाफा पक्का करता हो, यह इकलौती और सबसे जरूरी बात है.

दिखावे का हल्ला ठीक-ठाक हो, मगर इतना भी न हो जाए कि मामला उल्टा अपने गले पड़ जाए, हाशिमपुरा मामले में सेकुलर कंपनी की यही सोच रही है. हाशिमपुरा यकीनन मुद्दा है. इसमें मरने वाले भी मुसलमान हैं, लेकिन यह उस खास फैक्ट्री का उत्पाद नहीं है. क्योंकि उस वक्त केंद्र और राज्य, दोनों ही जगह कांग्रेस शासन था, इसलिए मरे कोई भी, यह मुद्दा है ही नहीं. भले यह मुद्दा नहीं है, मगर इसमें मुसलमान शामिल हैं. इसलिए यह सिर्फ फौरी हाय-हाय है. इसे न तो ज्यादा उछाला जाएगा, न ही ’87 के मेरठ दंगों के लिए 2002 के गुजरात दंगों की तरह नेता और राजनीतिक दलों की सोच पर कोई सवाल उठाए जाएंगे. तो क्या मुसलमानों का खून कांग्रेस के लिए सिर्फ सियासी नारे लिखने की स्याही है? तब के शासन और अब के फैसले को ईमानदारी से तौलता कांग्रेस ‘आलाकमान’ का कोई बयान आया क्या? बहरहाल, आज जिस फैसले से मेरठ-मलियाना-हाशिमपुरा के पीड़ितों के जख्मों पर कुछ मरहम तो लगा है, लेकिन जो दर्द कांग्रेस के शासनकाल में मुसलमानों ने सहा है उसका क्या ? 1988 में इंडिया टुडे पत्रिका के लिए उस दर्द की रिपोर्टिंग पंकज पचौरी ने की थी. वही पंकज पचौरी जो पिछली सरकार में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार थे.

अपनी उस रपट की शुरुआत में पचौरी लिखते हैं, ‘मजहब के नाम पर शुरू हुई मारकाट के बाद शासन और व्यवस्था के नाम पर नरसंहार हुआ.’ हाशिमपुरा दंगों के एक वर्ष बाद, मई 1988 में मलियाना की 72 साल की नफीस बेगम ने उनसे कहा, ‘प्रधानमंत्री आए और चले गए लेकिन कुछ हुआ नहीं!’ हाशिमपुरा के मोहम्मद उमर का दर्द भी उन्होंने बयान किया. बकौल उमर, उसके बेटे और दो पोतों को पीएसी ने दंगों के दौरान गिरफ्तार कर लिया था. गिरफ्तारी के पांच दिन बाद एक पोता अपने अब्बा की लाश लिए दादा के पास पहुंचा, लेकिन दूसरा पोता एक साल बाद भी लापता ही था. मेरठ-मलियाना-हाशिमपुरा की स्थिति पर लगातार रिपोर्टिंग करने वाला मीडिया कांग्रेस के शासनकाल में हुए इस दंगे पर क्या सोचता है, यह स्पष्ट किया जाना आवश्यक है. कथित सेकुलर और मुख्यधारा मीडिया कांग्रेस के समय में हुए दंगों पर कोई प्रश्न उठाकर उसे कटघरे में खड़ा नहीं करता तो यह उसके लिए जागने का समय है. उसे कांग्रेस की बजाय अपनी साख के बारे में सोचना चाहिये क्योंकि दागियों को बचाते-बचाते दाग उसके दामन पर भी कम नहीं आए हैं. सोशल मीडिया के मुखर दौर में यदि खरी बात भी मुख्यधारा मीडिया के मुंह से न निकल सकी तो यकीनन लोग उसे अपने दिल से निकाल देंगे.

साभार – पाञ्चजन्य

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