बच्चों की ‘संरक्षिका’ माता शीतला को चढ़ेगा ठंडा भोग

बच्चों व घर की खुशहाली के लिए होगी प्रार्थनाएं

जयपुर
हर वर्ष चैत्र मास की अष्टमी तिथि के दिन शीतला माता की पूजा की जाती हैं। इस तिथि को बास्योड़ा पर्व के नाम से भी जाना जाता हैं। इस दिन घरों में चूल्हे नहीं जलाए जाते हैं। मान्यता है कि मां शीतला की आराधना बच्चों को दुष्प्रभावों से मुक्ति दिलाती हैं। इसलिए शीतला माता को बच्चों की संरक्षिका माना जाता है। इतना ही नहीं इस दिन माता शीतला की आराधना करने से व्यक्ति को बीमारियों से भी मुक्ति मिलती है।

घर की महिलाएं शीतला माता की पूजा-अर्चना कर उन्हें ठंडे व्यंजनों का भोग अर्पित करती हैं एवं चेचक आदि बीमारियों से परिवार को बचाने की प्रार्थना भी की जाती हैं। शीतला माता की पूजा-अर्चना करने के साथ ही महिलाएं व्रत भी रखती हैं। तडक़े उठकर गीत गाए जाते हैं। पत्थवारी पूजी जाती हैं। इसके पश्चात शीतला माता के मंदिरों में भीगे हुए मूंग, मोठ, चने, पुआ-पकौड़ी, दही, राबड़ी सहित विभिन्न ठंडे व्यंजनों का भोग लगता हैं।

नवविवाहिताएं विशेष तौर पर कंडवारा लेकर मंदिर जाती हैं। इससे एक दिन पूर्व सप्तमी के दिन घर की महिलाएं रांधा पुआ के तहत पकवान बनाती हैं। मान्यता है कि व्यक्ति किसी भी वर्ग का हो शीतला माता उसके घर अवश्य आती हैं। इनका वाहन गधा है, इनके एक हाथ में झाड़ू, दूसरे हाथ में जल से भरा हुआ कलश एवं सिर पर सूप है। वहीं इनकी मुखाकृति गम्भीर है।


ज्योतिषाचार्य नरहरिदास महाराज बताते हैं कि ”शीतलाष्टमी को ठंडा भोजन खाने के पीछे धार्मिक और वैज्ञानिक दोनों ही मान्यता है। ऐसा कहा जाता हैं शीतल व ठंडे व्यंजनों से मां शीतला प्रसन्न होती है और श्रद्धालुओं को निरोग होने का वरदान देती है। इसीलिए इस दिन माता शीतला को ठंडे व्यंजनों का भोग लगाने की परंपरा है। वहीं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो यह समय शीत ऋतु के जाने का और ग्रीष्म ऋतु के आने का समय है। इस दौरान मौसमी बीमारियां होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं।”


शीतला अष्टमी पर ठंडा खाना खाने से मौसमी बीमारियों से लड़ने की शक्ति बढ़ती है। यही कारण है कि घर की महिलाएं शीतला माता की पूजा-अर्चना कर उनसे घर की सुख शांति, परिवार और बच्चों के स्वस्थ्य जीवन की कामना करती हैं।

शील की डूंगरी में भरा मेला—

जयपुर के दक्षिण दिशा में करीब 70 किलोमीटर की दूरी पर शीतला माता का मंदिर है। चाकसू कस्बे में स्थित माता का यह मंदिर एक पहाड़ी पर है। वैसे तो पूरे वर्ष भर भक्तगण माता के दर्शन करने आते हैं, लेकिन चैत्र माह में शीतला अष्टमी यानि बास्योड़ा के मौके पर यहां दो दिवसीय लक्खी मेला भरता है। इस स्थान को शील की डूंगरी के नाम से भी जाना जाता है।


इस परंपरागत मेला को देखने के लिए जयपुर के अलावा दूर दराज से भी श्रृद्धालुगण पहुंचते हैं। जो नाच-गाकर एवं रात्रि जागरण करके माता को रिझाते हैं। जयपुर राजदरबार की ओर से निर्मित 500 साल पुराने इस मंदिर में आज भी पहला भोग राजघराने की ओर से ही लगाया जाता है। पौराणिक शिलालेखों के अनुसार इस मंदिर का निर्माण जयपुर के महाराजा माधोसिंह ने करवाया था। तभी से पहला भोग राजदबार से ही चढ़ाने की परंपरा चली आ रही है।

जातीय पंचायत में ‘सुलझते झगड़े’—

खास बात यह है कि कई समाजों के लोग इस मेले में अपनी जातीय पंचायत लगाकर आपसी झगड़े भी सुलझाते हैं। यह मेला सांस्कृतिक संगम और सामाजिक समरसता का संदेश देता है। जिसके प्रति लोगों में बहुत उत्साह होता हैं। यही एक बड़ी वजह भी है कि, पहली रात्रि से ही विभिन्न प्रकार के खेलकूद और मनोरंजन के विविध कार्यक्रम यहां पर आयोजित किए जाते हैं।

मंदिर से जुड़ा इतिहास—

शीतला माता मंदिर से जुड़ी वैसे तो कई कथाएं प्रचलित हैं किंतु बारहदरी पर लगे शिलालेख में अंकित कहानी अधिक प्रचलन में है। शिलालेख के अनुसार, ”जयपुर नरेश माधोसिंह के पुत्र गंगासिंह एवं गोपाल सिंह को चेचक की बीमारी हुई थी। जो माता शीतला की कृपा से ठीक हुई थी। इसके बाद राजा माधोसिंह ने शील की डूंगरी पर मंदिर एवं बारहदरी का निर्माण करवाया था। यहां बनें बारहदरी भवन पर लगे शिलालेख में माता के गुणगान का उल्लेख मिलता है।

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