निस्वार्थ भाव से की जाने वाली सेवा ही आदर्श सेवा- मोहनराव भागवत

जयपुर, 24 फरवरी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहनराव भागवत ने भरतपुर स्थित अपना घर संस्थान के कार्यक्रम में निस्वार्थ एवं अहंकार के बिना की जाने वाली सेवा को ही सेवा का आदर्श रूप बताया है।

उन्होंने कहा कि हमारे देश में सेवा की परम्परा ऐसी है कि सेवा के बदले प्रभावित के मंगल के अलावा कुछ भी अपेक्षा293242-mohan-bhagwat नहीं की जाती। उन्होंने इस अवसर पर मदर टेरेसा के सेवा कार्यों का उल्लेख करते हुए कहा कि “उनका सेवा कार्य महत्वपूर्ण था लेकिन सेवा इस उद्देश्य से की जाती थी कि जिनकी सेवा की जा रही है वे ईसाई मतान्तरित हो जाएं। कोई व्यक्ति ईसाई मतान्तरित होना चाहता है या नहीं, यह उस व्यक्ति पर ही छोड़ देना चाहिए। लोगों को सेवा के नाम पर धर्मान्तरण का लालच देना सेवा का अपमान है।“

( राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहनराव भागवत द्वारा भरतपुर स्थित अपना घर संस्थान के लोकार्पण एवं शिलान्यास कार्यक्रम में दिए गए भाषण का मूल पाठ)

मान्यवर भारद्वाज जी, यहां उपस्थित माताएं, मित्र एवं बहिनो

वास्तव में, बहुत सारे लोगों ने यहां हो रहे सेवा कार्य में योगदान दिया है। मेरा योगदान तो यहां केवल बोलना है और देश भर में घूम-घूम कर मैं अधिकतर यही करता रहता हूं। मैं तो वही दे सकता हूं, जो मेरे पास है और इसीलिए मैं यहां अपने भाषण के माध्यम से सेवा करने आया हूं। मैं सिर्फ आपको उपदेश देने के लिए बोल रहा हूं ऐसा नहीं है। यह मेरी ओर से सेवा है।

जैसा कि आपने भी देखा होगा, जो लोग यहां आते हैं और यहां चल रहे सेवा कार्य देखते हैं, वे भी समाज की सेवा करने वाले स्वयंसेवक बन जाते हैं। ऐसा इसलिए है कि क्योंकि हम यहां सेवा का मानवीय रूप देख रहे हैं। महाभारत युद्ध के बाद, जब युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया तो एक नेवला आया, जिसके शरीर का आधा हिस्सा सोने का था। वह नेवला यज्ञ कुण्ड के आस-पास लोटने लगा ताकि उसका बाकी शरीर भी सोने का हो जाए। लेकिन कुछ समय बाद वह नेवला निराश होकर वहां से चला गया और ऐसे ही किसी अन्य यज्ञ को खोजने में लग गया। कुछ समय बाद वह एक परिवार के सम्पर्क में आया, जिसने अपना सब कुछ अपने अतिथियों की सेवा में लगा दिया था। नेवला वहां पहुंचा और घर में लोटने लगा। इस तरह उसका बचा हुआ आधा शरीर भी सोने का हो गया। लेकिन यदि नेवला इस परिवार तक नहीं पहुंच पाता, तो मैं उसे यहां (अपना घर) पहुंचने का सुझाव देता ताकि यहां आकर वह अपने बचे हुए शरीर को सोने में बदल सकता।

वास्तव में, नेवला युधिष्ठिर के यज्ञ में यह संदेश देने गया था कि उन्हें अपने कार्य के बारे में अहंकार करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि सेवा कार्य तो निस्वार्थ भाव से और स्वयं पर अभिमान किए बिना किया जाता है। हम समाज की खूब सेवा करते हैं और इसे बहुत महत्वपूर्ण बताते हुए स्वयं पर गर्व भी करते हैं। सामान्य मनुष्य के रूप में हमारा जन्म भौतिक सोच के साथ हुआ है और हम अनजाने ही अपनी इंद्रियों की इच्छाओं के वशीभूत हो जाते हैं।

लेकिन दुनिया में ऐसे भी लोग हैं जो अपना पूरा जीवन सेवा में लगा देते हैं और बदले में कुछ पाने की इच्छा किए बिना दुनिया से चले जाते हैं। ऐसे लोगों और उनकी सेवा को बढ़ावा देने की आवश्यकता है। सिर्फ मनुष्य ही है जो दूसरों की सेवा करता है, पशु तो स्वयं की ही सेवा करते हैं। पशु कभी नहीं सोचता कि उसका जन्म क्यों हुआ एवं उसे दुनिया में क्या प्राप्त करना है। जन्म लेने के बाद जब तक वह जीवित है, वह अपनी आवश्यकतानुसार अपने लिए भोजन का प्रबंध करता रहता है और अंत में मर जाता है। वह उस दैत्य की तरह भी नहीं होता, जो दूसरों का शोषण करता है। पशु सिर्फ उतना ही लेता है जितना उसे खाना है और दैत्य की तरह आवश्यकता से अधिक ग्रहण नहीं करता है। लेकिन मनुष्य अलग है क्योंकि वह विचार करने वाला प्राणी है। जब वह स्वार्थी हो जाता है तो वह दैत्य बन जाता है। यदि वह दूसरों की सेवा के लिए कार्य करता है तो वह स्वयं भगवान बन जाता है। ऐसे ही लोगों को हमें प्रोत्साहित करना चाहिए। एक बारा राजा हरिश्चन्द्र से पूछा गया कि वह क्या प्राप्त करना चाहते हैं। उन्होंने उत्तर दिया कि अपने लिए वह कुछ नहीं चाहते बल्कि सबकुछ दूसरों को देना चाहते हैं। देवताओं द्वारा ली गई तरह-तरह की परीक्षाओं के बावजूद भी उन्होंने ऐसा किया। अन्त में यम प्रकट हुए और पूछा कि वह अपने लिए क्या मांगते हैं। तब भी हरिश्चन्द्र ने कहा कि हम तो सभी लोगों और पशुओं के लिए मंगल की कामना करते हैं और अपने लिए कुछ नहीं चाहिए।

इस तरह हमारे देश में सेवा की जाती है। जब सेवा की जाती है तो बदले में प्रभावित के मंगल के अलावा कुछ भी अपेक्षा नहीं की जाती। लेकिन, आज हम देखते हैं कि मदर टेरेसा जैसी सेवा की जा रही है। उनका सेवा कार्य महत्वपूर्ण हो सकता है लेकिन सेवा इस उद्देश्य से की जाती थी कि जिनकी सेवा की जा रही है वे ईसाई मतान्तरित हो जाएं। कोई व्यक्ति ईसाई मतान्तरित होना चाहता है या नहीं, यह उस व्यक्ति पर ही छोड़ देना चाहिए। लेकिन लोगों को सेवा के नाम पर धर्मान्तरण का लालच देना सेवा का अपमान है। सेवा पूरी तरह निस्वार्थ और बदले में कुछ भी इच्छा किए बिना होनी चाहिए। जिन लोगों को ऐसी निस्वार्थ सेवा प्राप्त होती है, वे सेवा करने वालों में ईश्वर को देखते हैं और जो सेवा करते हैं वे सोचते हैं कि सेवा का अवसर प्राप्त होने से उनको भगवान के दर्शन हो गए और प्रभु उनके सामने हैं।

सेवा के बाद गर्व का भाव भी नहीं रहना चाहिए क्योंकि सेवा का अवसर तो जरूरतमंद द्वारा ही प्रदान किया गया है। हमें समाज में एक-दूसरे के प्रति ऐसे ही भाव की आवश्यकता है। जब ऐसा चरित्र समाज का अंग बन जाता है, तो ऐसे समाज में कोई कमी नहीं निकाल सकता है, ऐसे समाज का सिर्फ अच्छा ही हो सकता है। जब लोग बाहर से आते हैं तो उन्हें प्रसिद्ध स्थान दिखाए जाते हैं, लेकिन यहां पैदा हुए लोगों को क्या दिखाया जा सकता है। हम उन्हें ऐसे प्रेरित करने वाले लोगों से मिलवा सकते हैं, ऐसे स्थानों पर ले जा सकते हैं जो उन्हें सेवा के लिए प्रेरित करते हैं। ऐसे स्थान जो हमारे अंदर गर्व का संचार करते हैं और जो हमें देश के प्रति कर्तव्य का स्मरण कराते हैं, ऐसे स्थान ही आधुनिक समय के तीर्थ स्थल हैं। आज, भरतपुर में इस कार्यक्रम में आकर मुझे ऐसे दोनों अनुभव एक ही स्थान पर लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

कल मैं महाराजा सूरजमल का महल देखने गया। मैंने देखा कि कैसे हमने अपने गौरवशाली इतिहास और धरोहर को बनाए रखने के लिए आक्रांताओं से लड़ाई लड़ी। हमें यह गुण अपने पूर्वजों से मिला है। और आज मुझे यहां देखने का अवसर मिला कि देश के प्रति हमारा क्या कर्तव्य है। रामकृष्ण परमहंस ने भी यही बात कही थी। – दूसरों में भगवान को देखो और उनकी निस्वार्थ सेवा करो।– क्यों बाहर से किसी को आना चाहिए और हमारे लोगों की सेवा करनी चाहिए जबकि हम स्वयं यहां हैं। हमें स्वयं अपने असहाय लोगों की सेवा करनी चाहिए और यह कार्य बाहर से आने वाले लोगों के भरोसे नहीं छोड़ना चाहिए। जिस असहाय की आज सेवा की जा रही है, कल वह अपने आप खड़े होने लायक हो जाएगा और आगे चलकर अन्य जरूरतमंदों की सेवा करेगा।

कई तरह की सेवा होती है। एक तरीका है कि असहाय के पास जो मूल आवश्यकता की वस्तु नहीं है, वह उन्हें दे दें। दूसरा यह है कि उन्हें उनकी आवश्यकता की पूर्ति के लिए मार्ग दिखाएं। यह अंतर वैसा ही है जैसे किसी मनुष्य को मछली पकड़ना सिखाने के बजाय भूख मिटाने के लिए मछली दे देना। तीसरा तरीका है कि उस व्यक्ति को मछली पकड़ना इस प्रकार सिखाएं कि वह अन्य को भी मछली पकड़ना सिखा सके। इस प्रकार किसी की सेवा करने की आवश्यकता नहीं रहेगी क्योंकि लोग अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं करने लग जाएंगे। चौथा तरीका यह है कि इनमें से किसी एक तरीके का प्रबंध करना जैसे या तो मछली देना, या मछली पकड़ना सिखाना अथवा ऐसी व्यवस्था करना कि हर कोई मछली पकड़ना सीख जाए। ऐसा तब होगा जब हम महसूस करेंगे कि असहाय लोग तो मेरे अपने हैं और मेरा जीवन तो उन्हीं के लिए है। ऐसे लोग तैयार करना ही, सेवा का सबसे आदर्श तरीका है। यहां हमें सेवा के चारों रूप देखने को मिल रहे हैं।

मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति की जा रही है, लोग सीख रहे हैं कि अपना ध्यान कैसे रख सकें, ऐसे लोग भी हैं जो अन्य लोगों को तरह-तरह का प्रशिक्षण दे रहे हैं और अंत में हमने ऐसे लोग भी देखे जो इन सब चीजों की व्यवस्था कर रहे हैं। यह दृश्य देखकर हमारा जीवन समृद्ध हुआ है और हमें दैवीय अनुभूति हो रही है। हमारे इन सेवा कार्यों में सम्मिलित होने से और अन्य लोगों को निस्वार्थ सेवा में लगने के लिए प्रेरित करने से हमारा जीवन भी पवित्र हो जाएगा। यह तीर्थ से मिलने वाली पवित्रता से किसी भी तरह कम नहीं है। मराठी मेरी मातृ भाषा है और हम मराठी में अपने पिता को तीर्थरूप कहते हैं, इसका मतलब होता है वह व्यक्ति जो भगवान की सेवा करने से स्वयं दिव्य हो गया है और इस तरह इस दुनिया की देख-रेख करने वाला बन गया है। इसी प्रकार, आप लोग भी ईश्वर की सेवा के कार्य में लगे हुए हैं और एक दिन आप सब भी तीर्थरूप हो जाएंगे। ऐसी इच्छा और भावना के साथ मैं सभी का आभार व्यक्त करते हुए अपनी बात समाप्त करता हूं।

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1 Response

  1. दुर्गा प्रसाद says:

    धर्म निरपेक्ष कहलाने वालों का Rss को बिना समझे गाली निकालने की आदत लग गई है

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